मुंबई, 25 अक्टूबर। शब्बीर कुमार, जिनका असली नाम शब्बीर शेख है, भारतीय फिल्म उद्योग के उन चुनिंदा प्लेबैक गायकों में से एक हैं, जिन्होंने 1980 के दशक में अपनी मधुर आवाज से बॉलीवुड को एक नई पहचान दी। मोहम्मद रफी के प्रति अपनी गहरी श्रद्धा व्यक्त करते हुए, शब्बीर ने अपने नाम में 'कुमार' जोड़कर यह संदेश दिया कि संगीत की दुनिया में जाति या समुदाय का कोई महत्व नहीं है, बल्कि केवल प्रतिभा और आवाज ही महत्वपूर्ण हैं।
उनका करियर 1967 में शुरू हुआ, जब उन्होंने छत्रपती शिवाजी की जयंती पर रफी साहब का गाना 'मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे' गाकर पहली बार सुर्खियां बटोरीं। 1981 में, संगीतकार उषा खन्ना ने उन्हें फिल्म 'तजुर्बा' में पहला ब्रेक दिया, जहां उन्होंने 'हम एक नहीं, हम दो नहीं... हम हैं पूरे पांच' गाकर सुरेश वाडकर, अमित कुमार और हेमलता जैसे गायकों के साथ अपनी जगह बनाई।
शब्बीर का असली जलवा तब देखने को मिला जब मनमोहन देसाई और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने उन्हें अमिताभ बच्चन के लिए फिल्म 'कुली' (1983) में 'मुबारक हो तुम सबको हज का महीना' गाने का अवसर दिया। इसके बाद, उन्होंने धर्मेंद्र, ऋषि कपूर, जितेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती, और गोविंदा जैसे सितारों के लिए कई हिट गाने गाए, जिनमें 'गोरी है कलाइयां' और 'सोचना क्या' शामिल हैं।
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, राहुल देव बर्मन, बप्पी लहरी, आनंद-मिलिंद और जतिन-ललित जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ उनके सहयोग ने उन्हें 34 गोल्ड डिस्क, 16 प्लेटिनम अवार्ड्स और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से 'कला रत्न' सम्मान दिलाया। हिंदी के अलावा, उन्होंने मराठी, बंगाली, भोजपुरी, पंजाबी और मलयालम जैसी भाषाओं में भी अपनी आवाज का जादू बिखेरा।
1980 के दशक में जब मोहम्मद रफी के आकस्मिक निधन से संगीत जगत में एक बड़ा शून्य उत्पन्न हुआ, तब शब्बीर कुमार की आवाज ने उस कमी को भरने का कार्य किया।
शब्बीर कुमार के करियर का एक दिलचस्प किस्सा यह है कि उन्होंने स्टारडम के बावजूद अपने पारिवारिक संस्कारों को कभी नहीं छोड़ा।
1985 की सुपरहिट फिल्म 'मर्द' ने अमिताभ बच्चन को एक बार फिर एंग्री यंग मैन के रूप में स्थापित किया। इस फिल्म के गाने भी बेहद हिट हुए, जिनमें शब्बीर कुमार का गाया हुआ 'बुरी नजरवाले तेरा मुंह काला' भी शामिल था।
यह गाना आज भी एक कल्ट क्लासिक है, लेकिन इसे रिकॉर्ड करते समय शब्बीर कुमार को एक अजीब स्थिति का सामना करना पड़ा। गीतकार प्रयागराज ने गाने में कुछ ऐसे बोल लिखे थे जो आम बोलचाल की भाषा का हिस्सा थे, जैसे कि अंतरे में आने वाला शब्द 'साला'।
शब्बीर कुमार ने एक इंटरव्यू में बताया कि वह एक पारंपरिक परिवार से आते हैं, जहां अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता था। जब उन्हें स्टूडियो में 'ऐ साला', 'जा साला', और 'वाह साला' जैसे शब्द गाने पड़े, तो उन्हें बहुत संकोच हुआ।
निर्देशक मनमोहन देसाई ने उनकी इस उलझन को समझा और उन्हें आश्वस्त किया कि यह गाना अमिताभ बच्चन के किरदार के लिए है, न कि उनकी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के लिए।
मनमोहन देसाई के समझाने के बाद ही शब्बीर कुमार ने हिम्मत जुटाई और गाने को पूरा किया। यह किस्सा दर्शाता है कि उनके लिए पारिवारिक मूल्य और संस्कार फिल्मी दुनिया की मांगों से अधिक महत्वपूर्ण थे।
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